ज्ञानयेाग, कर्मयोग तथा भक्तियोग कौन-सा योग किसके लिए उत्तम है?
भगवान ने ज्ञानयेाग, कर्मयोग तथा भक्तियोग का वर्णन किया है, उनके लक्षण बताए हैं। ये तीनों साधन रूप हैं, परन्तु कौन-सा योग किसके लिए उत्तम है?
१. ज्ञानयोग -
'निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु।।'
जिनको विषयों से शुद्ध वैराग्य हो गया है उनका अधिकार ज्ञानयोग में है। उनको अन्य कर्मों में फँसना छोड़कर विचार करना चाहिए। सच्चे वैराग्य का उदय होने पर व्यक्ति स्वतः ही ज्ञान मार्ग में प्रवृत्त हो जाएगा। इसके लिए उसे कुछ और करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रबल वैराग्य निश्चय ही तीव्र जिज्ञासा को जन्म देता है।
२. कर्मयोग -
'तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्।।'
परन्तु जिन्हें अभी विषयों से वैराग्य नहीं हुआ है, घर छोड़ने का साहस नहीं है, भय लगता है और यही विचार आता रहता है कि मैं जाऊँ तो कहाँ जाऊँ? उनके लिए कहा - अभी तुम कहीं मत जाओ, घर में ही रहो। ऐसे लोगों के लिए कर्मयोग का मार्ग है।
३. भक्तियोग -
'न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः।।'
जो पूर्ण विरक्त नहीं है, और जिनकी धर्म में भी अधिक आसक्ति नहीं है, ऐसों के लिए भगवान ने भक्तियोग बताया है।
तो जो नितान्त अनासक्त-विरक्त पुरुष है, उसके लिए ज्ञान योग, जो आसक्त है उसके लिए कर्मयोग तथा जो पूर्ण विरक्त नहीं है परन्तु बहुत आसक्त भी नहीं है, उसके लिए भक्तियोग का मार्ग बताया गया है। यहाँ यह भी बताया है कि कर्म कब तक करते रहना चाहिए।
तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण ११.२०.९ )
बोले, व्यक्ति को तब तक गृहस्थाश्रम में रहकर कर्म करना चाहिए जब तक विषयों से वैराग्य नहीं हो जाता। विधेयात्मक रीति से कहें तो जब तक भगवान की कथा में श्रद्धा और रति नहीं हो जाती, तब तक कर्म की स्थिति है। श्रद्धा और रति हो जाने के बाद व्यक्ति को बहुत ज्यादा कर्म नहीं बढ़ाने चाहिए। यही बात गोस्वामी जी ने भी अपने मानस में कही है।
छठ दम सील बिरति बहु कर्मा। ( श्रीरामचरितमानस ३.३५.२ )
भगवान कहते हैं - इस लोक में रहते हुए ही निष्ठापूर्वक स्वधर्म का पालन करने से धीरे-धीरे ज्ञान भी प्राप्त होगा और भक्ति भी प्राप्त होगी।
आगे एक बहुत प्रसिद्ध श्लोक में भगवान कहते हैं -
नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा।। ( श्रीमद्भागवत महापुराण ११.२०.१७ )
यह मनुष्य जन्म बड़ा ही दुर्लभ है परन्तु अब वह आपको प्राप्त हो गया है, अतः आपके लिए सुलभ हो गया है। भवसागर, संसार सागर को पार करने के लिए देह रूपी नौका तो मिल गयी है परन्तु कर्णधार-नौका चलाने वाला कौन है? बोले - 'गुरुकर्णधारम' गुरु की कर्णधार हैं, वे ही आपको मिल गये हैं। अब देखो, यदि समुद्र में तूफान आ जाए और वायु प्रतिकूल चलने लगे तो बड़ी कठिनाई होती है। लेकिन हमारे लिए तो 'मयानुकूलेन नमस्वेतेरितं' भगवान की कृपा रूपी वायु भी अनुकूल ही है।
देखो, नौका मिल गयी, नाविक भी मिल गये और भगवान की कृपा रूपी अनुकूल वायु भी मिल गयी, इसके बाद भी यदि कोई व्यक्ति संसार-समुद्र पार करने का प्रयास न करे - 'पुमान भवाब्धिं न तरेत स आत्महा' तो वह आत्महत्यारा है।
यहाँ आत्महत्या का तात्पर्य केवल शरीर का अन्त कर देना नहीं है। इतना सुन्दर और सुयोग्य देह प्राप्त करने के पश्चात भी भगवान को प्राप्त नहीं करने वाले ही वास्तव में आत्महत्यारे हैं।
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